कल एक मित्र के साथ रोहतक गया, उसकी मीटिंग थी M-way वाली..मुझे जाना नहीं था फिर भी उसके जिद्द करने पर गया.

कल एक मित्र के साथ रोहतक गया, उसकी मीटिंग थी M-way वाली..मुझे जाना नहीं था फिर भी उसके जिद्द करने पर गया.. उसके सामने शर्त रखी कि मैं मीटिंग में नहीं जाऊँगा..
क्योंकि मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी तो उसको यथास्थान के बाहर छोड़ा और मैं एक अन्य मित्र से मिलने चला गया...मेरा काम जल्दी समाप्त हो गया..रात हो गयी थी तो मैं भी मीटिंग वाले स्थान के बाहर आकर बैठ गया और अंदर बारी-बारी से बोल रहे आये हुए बक्ताओ को सुनने लगा.
एक बक्ता की बात ने मेरा ध्यान खिंचा तो मैं उठकर उसकी शक्ल देखने दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया... उसने कहा कि...... ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम, सबको सम्मति दे भगवान्...तालियाँ बजी ..मेरा ध्यान हॉल में बैठे हुए अन्य आदमी और औरतों पर था... पीछे से दूसरी लाइन में बैठे दो लडको ने कोई ताली नहीं बजाई. जबकि वो अंत तक हर बात पर ताली पीट रहे थे..
(अब क्यों नहीं बजाई ये आप अच्छे से जानते हैं)

फिर एक महिला उठी और बोलने लगी... कि "मैं गाँव में रहती थी, घूँघट करती थी, शर्म आती थी, बोलने का कॉन्फिडेंस नहीं था, M-WAY में आई तो कॉन्फिडेंस आ गया..अब बिना शर्म के, बिना घूँघट के सबके सामने बोलती हूँ...आप भी यहाँ आईये और आज़ादी से बोलिए..बेझिझक के बोलिए..वैगरा-वैगरा..
अब यहाँ उसने घूँघट को बड़ी ही खूबसूरती के साथ बेशर्मी से जोड़ा..जबकि उसको घूँघट प्रथा के बारे में कुछ नहीं मालूम..अगर पता होता कि ये इस्लामिक आक्रान्ताओं से औरतों को छुपाने के लिए था तो क्या वो ये सब कहती?
यानी बेशर्मी से कॉन्फिडेंस आता है जो किसी भी #Communists से सीखा जा सकता है..
मैं ये नहीं कहता की वो भी उनमे से एक थी लेकिन काम तो उनका ही कर रही थी.
मैं पर्दा प्रथा का समर्थन भी नहीं करता हूँ क्योंकि ये सनातन में है ही नहीं...
भूतकाल में जोड़ा गया क्योंकि उस समय ये जरुरी था..अब नहीं है तो ये समाप्त हो गया या हो रहा है.
(आपके घरों में कितनी महिलायें करती हैं?)
क्या एक प्रथा जो तात्कालिक समय में जरुरी थी, उसको इस प्रकार सनातन से जोड़ना सही है?
लेकिन उसने ना केवल जोड़ा बल्कि लोगो ने तालियाँ भी पीटी...या कहूँ कि मूर्ख लोगों ने तालियाँ पीटी लेकिन पीछे बैठे उन दो लोगों ने हँसते हुए सबसे ज्यादा जोर से पीटी.
(मन हुआ एक बार मैं भी बुरखे के बारे में पूंछु ..कि क्या ख्याल है? पर मैं निमंत्रित नहीं था)
खैर मैं आकर बैठ गया ..मेरे सामने एक टाई लगाए सूट पहने नोजवान बैठा था...उसके साथ चर्चा हुई....पोस्ट लम्बी ना हो इसलिए सीधा विषय को ही पकड़ता हूँ.. वो एक डॉक्टर था...मेडिसिन स्पेसिस्लिस्ट, लेकिन उसको ये भी नहीं मालूम कि जोधा कोई राजपूत नहीं बल्कि एक फ़िक्शन चरित्र था. जिसका इतिहास में कोई वजूद ही नहीं है.
उसको सच से अवगत करवाया...(कितने हैं जो इतिहास को फिल्मो से सीखते/समझते हैं?)
बाद में आते हुए उसने थम्सअप किया तो मैंने भी हाथ मिलाया.
(फोन नम्बर लिया है तीनो का, जल्द ही मुलाक़ात करूँगा उनसे लेकिन क्या वो सच को समझेंगे? ये उनपर निर्भर करता है)

आप सब से निवेदन है कि आस-पास होने वाली मीटिंगों में अवश्य जाएँ (अगर समय निकाल सकते है तो..सनद रहे ऐसे स्थानों पर आपको लोग जमा नहीं करने पड़ते तो एक एडवांटेज रहता है), ना केवल जाएँ बल्कि निमंत्रित होकर जाएँ, कुछ भी आपतिजनक लगे तो विरोध दर्ज करवाएं, जिन लोगों को पता ना हो तो उनको सच से अवगत करवाएं... बाकी तो सबकी अपनी मर्जी हैईये है.

पोस्ट के अंत में दो गाने रखता हूँ एक है 1993 की फिल्म "हम हैं राही प्यार के" से
घूँघट की आड़ से दिलबर का दीदार अधूरा रहता है, जब तक ना पड़े आशिक की नजर श्रंगार अधूरा रहता है.
दूसरा है 1968 की फिल्म "शिकार" से
परदे में रहने दो, पर्दा न उठाओ, पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा...अल्लाह मेरी तौबा, मौला मेरी तौबा.

एक बार दोनों गीतों के लिखने वालों को भी गूगल कर लो दोस्तों और पूछो मिस्टर परफेकस्निस्ट इन लव जेहाद वाले #amir_khan से कि घूँघट की आड़ से तो दिलबर का दीदार अधूरा रहता है लेकिन बुरखे में चमगादड़ बनी मुल्लियाँ कौन से हुस्न का दीदार करवाती हैं?
कभी उस पर कोई गीत लिखवाकर बुरखे वाली के बुरखे को खींचकर कहिये ना
तू चमगादड़ जैसी लगती है पर तेरी आँखे है बिल्लोरी
तू. बुरखा हटा और बन जा मेरी गोरी.  ✍️

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