मंदिर के चढ़ावे का निहितार्थ क्या है? क्या यह दान धन का व्यर्थ में अपव्यय है?
मंदिर के चढ़ावे का निहितार्थ क्या है? क्या यह दान धन का व्यर्थ में अपव्यय है?
मित्रों, भारत की सामाजिक अर्थव्यवस्था वचत आधारित व्यवस्था नहीं है। यह पूर्णतः व्यय आधारित अर्थव्यस्था रही है और आज भी इसका स्वरूप वही है। भारत में प्रत्येक अवसर निर्माण किए गए व्यय करने के लिए। ध्येय था खर्च करो। दान करो। परिग्रह मत करो। अपरिग्रह की परिपाटी का पालन करो और संग्रह मत करो। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:। उतना ही उपभोग करो जितना जीवन धारण करने के लिए आवश्यक हो। शेष दान कर दो। क्योंकि ईशावास्यमिदम सर्वम। वासुदेव सर्वम। सियाराम मय सब जग जानी। कण कण में परमात्मा है। कण कण परमात्म तत्व से ओतप्रोत है। इसीलिए सृष्टि का पोषण परमात्मा का ही पोषण है। अतः दान प्रासंगिक है।
और ध्यान रहे कि यह दान केवल ब्राह्मण को नहीं चारों वर्णों को जाता था। विभिन्न अवसर बनाये गए थे इसके लिए। इस विषय पर पृथक लेख लिखूंगा विस्तार से।
इसको विस्तार से समझने के लिए धन की तीन गति बताया गया। दान, भोग और नाश। इसको तुलसीदास जी ने सरलतम रूप में समझाया। सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। वह धन धन्य है जो प्रथम गति में जाय अर्थात दान में लगे। दान से बचे हुए धन का भोग का विधान है। किन्तु दान और भोग के बाद भी धन बचा लिया तो वह नाश का कारण बनेगा। विनाश सुनिश्चित करेगा।
इसलिए इस यज्ञमयी संस्कृति का वाहक हिन्दू अपने जीवन के प्रत्येक प्रयोजन में दान करता है। बालक-बालिका का जन्म हुआ तो दान। उसके प्रत्येक संस्कार में दान। यज्योपवित-विवाह से लेकर एक एक प्रयोजन में दान। पर्व-उत्सवों में दान। मेले में दान। तीर्थों में दान। नदियों, झीलों, जल स्रोतों में स्नान के समय दान। मंदिरों में दान। आदरणीय लोगों को दान। श्रद्धा के पात्र को दान। असहाय, निरीह, अभावग्रस्त, व्याधिग्रस्त लोगों को दान। खेती-कृषि-वाणिज्य के महत्वपूर्ण अवसरों पर दान। घर बनाया तो दान। राज्याभिषेक हुआ तो दान। मृत्यु के अवसर पर भी दान। उसी दान का एक अंग मृत्युभोज है जो अन्नदान की एक परिपाटी है। मृतक के साथ जिन जिन का जीवनभर सरोकार रहा उनको ज्ञापित करते हुए उनके कमाई का हिस्सा सबको अन्न के रूप में समर्पित करके तृप्त करना। इस प्रकार एक एक विशेष अवसर पर दान। सम्पूर्ण जीवन को दानमयी, यज्ञमयी बनाया था ऋषियों ने।
सबके दान की आदत अनेकों लोगों के आय का कारण बनता है। धन कुछेक लोगों के हाथों में सिमटकर रह जाने से बचाव होता है दान की परिपाटी के कारण। धन चक्र दान से पूर्ण होता है। जैसे जलचक्र से जल शोधित होता है। जैसे वायुचक्र से वायु शोधित होता है। जैसे कार्बन चक्र से कार्बन शुद्ध रुप को प्राप्त होता है। वैसे ही धनचक्र से धन अपने निर्धारित पूरे चक्र में घूमता रहे। कहीं भी न अटके। कहीं भी न ठहरे तो धन भी शोधित होता रहता है। अन्यथा धनचक्र के टूट जाने से जगत में हाहाकार मचता है। जैसा अभी हाहाकार मचा हुआ है पश्चिमी अर्थशास्त्र के मूर्खतापूर्ण प्रयोगों के कारण।
मंदिरों की व्यवस्था इस्लाम के आक्रमण और ईसाईयत के शासन काल में ध्वस्त हुई और कालांतर में कुछ बिगड़ गई। (मंदिरों की प्राचीन समाजोपयोगी अर्थव्यवस्था पर पृथक लेख लिखूँगा आप स्मरण कराते रहे तो।) । इनको ठीक करने का काम हमारा ही है। किंतु आप दान की इस हिन्दू अर्थशास्त्रीय जीवन दृष्टि पर आघात मत करिए। ऐसा करके आप प्रकारांतर से सनातन व्यवस्था पर आघात करेंगे और अनजाने में हिन्दू द्रोही, सनातन द्रोही हो जाएंगे। इससे बचें। और दान करते रहें कराते रहें। अपनी सनातन अर्थशास्त्र की कल्याणकारी परिपाटी को पहचानें। इसको पोषित-संवर्धित-परिवर्द्धित करें। समाज के अर्थचक्र को पुनः स्थापित करें। सहयोग की अपेक्षाओं के साथ सधन्यवाद। ~मुरारी शरण शुक्ल।
मित्रों, भारत की सामाजिक अर्थव्यवस्था वचत आधारित व्यवस्था नहीं है। यह पूर्णतः व्यय आधारित अर्थव्यस्था रही है और आज भी इसका स्वरूप वही है। भारत में प्रत्येक अवसर निर्माण किए गए व्यय करने के लिए। ध्येय था खर्च करो। दान करो। परिग्रह मत करो। अपरिग्रह की परिपाटी का पालन करो और संग्रह मत करो। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:। उतना ही उपभोग करो जितना जीवन धारण करने के लिए आवश्यक हो। शेष दान कर दो। क्योंकि ईशावास्यमिदम सर्वम। वासुदेव सर्वम। सियाराम मय सब जग जानी। कण कण में परमात्मा है। कण कण परमात्म तत्व से ओतप्रोत है। इसीलिए सृष्टि का पोषण परमात्मा का ही पोषण है। अतः दान प्रासंगिक है।
और ध्यान रहे कि यह दान केवल ब्राह्मण को नहीं चारों वर्णों को जाता था। विभिन्न अवसर बनाये गए थे इसके लिए। इस विषय पर पृथक लेख लिखूंगा विस्तार से।
इसको विस्तार से समझने के लिए धन की तीन गति बताया गया। दान, भोग और नाश। इसको तुलसीदास जी ने सरलतम रूप में समझाया। सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। वह धन धन्य है जो प्रथम गति में जाय अर्थात दान में लगे। दान से बचे हुए धन का भोग का विधान है। किन्तु दान और भोग के बाद भी धन बचा लिया तो वह नाश का कारण बनेगा। विनाश सुनिश्चित करेगा।
इसलिए इस यज्ञमयी संस्कृति का वाहक हिन्दू अपने जीवन के प्रत्येक प्रयोजन में दान करता है। बालक-बालिका का जन्म हुआ तो दान। उसके प्रत्येक संस्कार में दान। यज्योपवित-विवाह से लेकर एक एक प्रयोजन में दान। पर्व-उत्सवों में दान। मेले में दान। तीर्थों में दान। नदियों, झीलों, जल स्रोतों में स्नान के समय दान। मंदिरों में दान। आदरणीय लोगों को दान। श्रद्धा के पात्र को दान। असहाय, निरीह, अभावग्रस्त, व्याधिग्रस्त लोगों को दान। खेती-कृषि-वाणिज्य के महत्वपूर्ण अवसरों पर दान। घर बनाया तो दान। राज्याभिषेक हुआ तो दान। मृत्यु के अवसर पर भी दान। उसी दान का एक अंग मृत्युभोज है जो अन्नदान की एक परिपाटी है। मृतक के साथ जिन जिन का जीवनभर सरोकार रहा उनको ज्ञापित करते हुए उनके कमाई का हिस्सा सबको अन्न के रूप में समर्पित करके तृप्त करना। इस प्रकार एक एक विशेष अवसर पर दान। सम्पूर्ण जीवन को दानमयी, यज्ञमयी बनाया था ऋषियों ने।
सबके दान की आदत अनेकों लोगों के आय का कारण बनता है। धन कुछेक लोगों के हाथों में सिमटकर रह जाने से बचाव होता है दान की परिपाटी के कारण। धन चक्र दान से पूर्ण होता है। जैसे जलचक्र से जल शोधित होता है। जैसे वायुचक्र से वायु शोधित होता है। जैसे कार्बन चक्र से कार्बन शुद्ध रुप को प्राप्त होता है। वैसे ही धनचक्र से धन अपने निर्धारित पूरे चक्र में घूमता रहे। कहीं भी न अटके। कहीं भी न ठहरे तो धन भी शोधित होता रहता है। अन्यथा धनचक्र के टूट जाने से जगत में हाहाकार मचता है। जैसा अभी हाहाकार मचा हुआ है पश्चिमी अर्थशास्त्र के मूर्खतापूर्ण प्रयोगों के कारण।
मंदिरों की व्यवस्था इस्लाम के आक्रमण और ईसाईयत के शासन काल में ध्वस्त हुई और कालांतर में कुछ बिगड़ गई। (मंदिरों की प्राचीन समाजोपयोगी अर्थव्यवस्था पर पृथक लेख लिखूँगा आप स्मरण कराते रहे तो।) । इनको ठीक करने का काम हमारा ही है। किंतु आप दान की इस हिन्दू अर्थशास्त्रीय जीवन दृष्टि पर आघात मत करिए। ऐसा करके आप प्रकारांतर से सनातन व्यवस्था पर आघात करेंगे और अनजाने में हिन्दू द्रोही, सनातन द्रोही हो जाएंगे। इससे बचें। और दान करते रहें कराते रहें। अपनी सनातन अर्थशास्त्र की कल्याणकारी परिपाटी को पहचानें। इसको पोषित-संवर्धित-परिवर्द्धित करें। समाज के अर्थचक्र को पुनः स्थापित करें। सहयोग की अपेक्षाओं के साथ सधन्यवाद। ~मुरारी शरण शुक्ल।
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